वास्तु की उत्पत्ति कैसे हुई? – इतिहास और महत्व
वास्तु शास्त्र प्राचीन भारतीय ज्ञान का वह अनमोल खजाना है जो भवन निर्माण, मंदिर निर्माण, नगर योजना और पर्यावरणीय संतुलन से जुड़ा हुआ है। यह केवल ईंट-पत्थर या दीवारों का विज्ञान नहीं है, बल्कि यह ऊर्जा प्रवाह, दिशाओं और पंचमहाभूतों (जल, वायु, अग्नि, आकाश और पृथ्वी) के संतुलन पर आधारित एक जीवनदर्शन है। वास्तु का उद्देश्य मनुष्य के जीवन में सुख, शांति, धन, स्वास्थ्य और समृद्धि लाना है। ऐतिहासिक और पुरातात्त्विक प्रमाणों के अनुसार, वास्तु शास्त्र की शुरुआत लगभग 5,000–7,000 वर्ष पहले हुई थी। यह भारत की संस्कृति, वेद, पुराण और वैदिक सभ्यता से गहराई से जुड़ा हुआ है। आइए इसके विकास और महत्व को विस्तार से समझें।
1. वेदों से वास्तु की शुरुआत (5,000–7,000 वर्ष पहले)
वास्तु की जड़ें सीधे वेदों में मिलती हैं। विशेष रूप से ऋग्वेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद में भवन निर्माण, दिशा, भूमि चयन और ऊर्जा के प्रवाह का उल्लेख मिलता है। वेदों के अनुसार,पंचमहाभूत – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – सम्पूर्ण ब्रह्मांड के निर्माण के पाँच आधार तत्व हैं। मनुष्य का शरीर और घर दोनों इन्हीं तत्वों से बने हैं। प्राचीन ऋषियों का मानना था कि जब ये पंचमहाभूत संतुलन में होते हैं, तब जीवन में सकारात्मकता, स्वास्थ्य और समृद्धि बनी रहती है। यही विचार आगे चलकर वास्तु शास्त्र का मूल सिद्धांत बना। वेदों में यह भी कहा गया है कि किसी भी भूमि या भवन का चयन करते समय दिशा, सूर्य की गति, वायु प्रवाह और जल स्रोतों का ध्यान रखना चाहिए, ताकि वहां प्राकृतिक ऊर्जा का समुचित प्रवाह हो सके।
2. वास्तु पुरुष की कथा (लगभग 4,000–5,000 वर्ष पहले)
वास्तु शास्त्र के पीछे एक रोचक पौराणिक कथा भी प्रचलित है, जिसे वास्तु पुरुष की कथा कहा जाता है। पुराणों के अनुसार, एक बार देवताओं और असुरों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध के दौरान एक विशालकाय दैत्य उत्पन्न हुआ, जिसकी शक्ति इतनी प्रचंड थी कि उसने सम्पूर्ण ब्रह्मांड को संकट में डाल दिया। भगवान ब्रह्मा और अन्य देवताओं ने मिलकर उस दैत्य को धरती पर दबा दिया। देवताओं ने उसकी आकृति को दिशाओं में विभाजित किया, और हर दिशा की सुरक्षा के लिए एक-एक देवता को नियुक्त किया। इसी आकृति को “वास्तु पुरुष मंडल” कहा गया, जो आज भी वास्तु शास्त्र का आधार है। वास्तु पुरुष के सिर को उत्तर-पूर्व दिशा में और पैरों को दक्षिण-पश्चिम दिशा में माना जाता है। इसी वजह से निर्माण कार्य में दिशाओं का संतुलन और पूजा विधि आवश्यक मानी जाती है। आज भी किसी भी नए भवन या घर के निर्माण से पहले वास्तु पूजन और वास्तु पुरुष की आराधना की परंपरा निभाई जाती है।
3. शिल्पियों और ग्रंथों में विस्तार (2500–3000 वर्ष पहले)
वास्तु शास्त्र को
व्यवस्थित रूप देने का श्रेय विश्वकर्मा को दिया जाता है, जिन्हें देवशिल्पी कहा जाता है। विश्वकर्मा के शिष्यों और
अन्य आचार्यों ने इस ज्ञान को ग्रंथों के रूप में लिखा, जिनमें प्रमुख हैं –मयमतम्,
मंसार, समरांगण सूत्रधार, अपराजितपृच्छा, ब्रह्मांड पुराण और अग्नि पुराण। इन ग्रंथों
में भवन निर्माण, मंदिर निर्माण, नगर योजना, भूमि परीक्षण, जल निकासी, दरवाजों की दिशा,
प्रकाश व्यवस्था आदि के नियम बड़ी बारीकी से बताए गए हैं। इस काल में निर्मित महल,
मंदिर और नगर पूरी तरह वास्तु सिद्धांतों के अनुरूप बनाए जाते थे। उदाहरण के लिए, महलों
में उत्तर दिशा से प्रकाश प्रवेश, पूर्व दिशा में मुख्य द्वार और दक्षिण-पश्चिम में
भंडारण की व्यवस्था की जाती थी। वास्तु का प्रयोग केवल धार्मिक इमारतों में नहीं, बल्कि
सामान्य आवास और नगर नियोजन में भी किया जाता था।
4. सभ्यता और नगर निर्माण में प्रयोग
वास्तु शास्त्र की
झलक हमें सिंधु घाटी सभ्यता, विशेषकर हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के नगरों में स्पष्ट रूप
से दिखाई देती है। उनकी गलियाँ सीधी रेखाओं में बसी थीं, जल निकासी की उत्कृष्ट व्यवस्था
थी, और घर सूर्य की दिशा के अनुसार बनाए गए थे — यह सब वास्तु सिद्धांतों का जीवंत
उदाहरण है। बाद में भारत के कई प्राचीन मंदिर जैसे खजुराहो, कोणार्क, मदुरै, अजंता-एलोरा,
तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर और मीनाक्षी मंदिर वास्तु के अनुसार निर्मित किए गए। इन
मंदिरों की रचना में ऊर्जा केंद्र (गर्भगृह), प्रवेश द्वार, प्रदक्षिणा मार्ग और मंडप
की दिशा का अत्यंत ध्यान रखा गया। वास्तु के ये सिद्धांत न केवल धार्मिक श्रद्धा का
प्रतीक हैं, बल्कि ऊर्जा प्रवाह, ध्वनि तरंगों और प्रकाश संतुलन का वैज्ञानिक प्रमाण
भी देते हैं।
5. आधुनिक युग में वास्तु का महत्व
समय के साथ भले ही
जीवनशैली बदल गई हो, लेकिन वास्तु शास्त्र
का महत्व आज भी उतना ही प्रासंगिक है। आधुनिक आर्किटेक्चर, इंटीरियर डिज़ाइन और टाउन
प्लानिंग में वास्तु के सिद्धांतों को अपनाया जा रहा है। आज के समय में लोग अपने घर,
दफ्तर, दुकान या कारखाने बनवाते समय ऊर्जा संतुलन, वेंटिलेशन, सूर्य की दिशा, और सकारात्मक
स्पेस प्लानिंग पर ध्यान देते हैं — जो सब वास्तु से प्रेरित हैं। वास्तु को अब केवल
धार्मिक मान्यता नहीं बल्कि एक प्राकृतिक विज्ञान (Natural Science) के रूप में भी
देखा जा रहा है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो वास्तु का प्रत्येक नियम सूर्य की
रोशनी, हवा के प्रवाह, तापमान नियंत्रण और मनोवैज्ञानिक संतुलन से जुड़ा है। उदाहरण
के लिए, उत्तर-पूर्व दिशा से सुबह की सूर्य किरणें आती हैं जो शुद्ध और सकारात्मक ऊर्जा
देती हैं, इसलिए वहां पूजा स्थल या जल स्रोत रखना शुभ माना जाता है। इसी प्रकार दक्षिण-पश्चिम
दिशा में भारी वस्तुएं या भंडारण रखना घर की स्थिरता बढ़ाता है।
निष्कर्ष
वास्तु शास्त्र की
उत्पत्ति भारत की वैदिक परंपरा, पुराणों और
शिल्पशास्त्रों से विकसित हुआ। यह केवल धार्मिक विश्वास नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव
जीवन के सामंजस्य का विज्ञान है। वास्तु हमें सिखाता है कि जब हम अपनी जीवनशैली, घर
और परिवेश को दिशाओं और ऊर्जा के प्राकृतिक नियमों के अनुसार ढालते हैं, तब हमारा जीवन
अधिक संतुलित, शांतिपूर्ण और समृद्धि बनता है। प्राचीन काल से लेकर आज के आधुनिक दौर
तक, वास्तु शास्त्र ने यह साबित किया है कि सकारात्मक ऊर्जा का सही प्रवाह जीवन
की गुणवत्ता को बदल सकता है। इसीलिए कहा गया है —जहाँ वास्तु का पालन होता है, वहाँ
लक्ष्मी, स्वास्थ्य और सुख स्वयं निवास करते हैं।
